A review by canis_majoris
निठल्ले की डायरी by Harishankar Parsai

3.0

3.5
किताब में परसाई की व्यंग रचनाएँ हैं जिन्हें कहानियाँ भी जा सकता है. उनकी नज़रें बेहद गहरायी में जा कर बातों को देख लेती हैं. बड़े ही मामूली रोज़ मर्रा के मामले जिन्हें हम अमूमन नज़रंदाज़ कर देते हैं, परसाई ने उन्ही मामलो और परिस्थितियों के ज़रिये हमें हमारा ही ऐसा रूप दिखाया है जिसे देखकर एक बार जरूर ऐसा लगता है कि समाज की इस हालत के लिए हम ज़िम्मेदार तो हैं. नेता, पडोसी, बूढ़े, लेखक, कवि, बड़े आदमियों कि बीवियां, गाय, जंगलों के जानवर आदि उनके प्रिय चरित्र हैं. इन व्यंग रचनाओं को पढ़ कर ऐसा लगता है कि इनकी और इनके लेखक कि ज़्यादा ज़रूरत आज के वक़्त में है. वही राजनैतिक मुद्दे, औरतों के वही हालात और आम आदमी का व्यव्हार जो 40-50 साल पहले था, वही अब भी है. कोई तो चीज़ है जो हमें रोक कर बैठी है और हम
उसे आज भी नज़रंदाज़ किये जा रहे हैं.
परसाई शब्दों और भावना दोनों के किफायती हैं. जिस तर्क को समझने के लिए जिस भावना की ज़रूरत है वे उस भावना को ही पाठक के मन में अपने लेखन के ज़रिये उतारते हैं जो की अहम बात है. ये सारी रचनाएँ मिल कर एक ऐसा सामाजिक ढांचा तैयार करती हैं जिसमे हम अपने आप को और अपने आस पास मौजूदा civic sense बड़ी आसानी से देख सकते हैं.
कुल मिला के ये एक बेहद मज़ेदार, पठनीय और अच्छी किताब है जी आपके जीवन में sensation नहीं लायेगी पर कुछ सामान्य मगर अहम् सवालों को ज़रूर लायेगी.